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सरकार द्वारा, सदन द्वारा जनलोकपाल बिल पर भी एक प्रकार का विश्वासघात किया गया तो लगा कि जैसे सरकार अन्ना टीम को बैकफुट पर ले जाने को ही आतुर है। इस बीच आम जनमानस को आशा बँधी थी कि उत्तर प्रदेश के चुनावों में अन्ना टीम यहाँ आकर जागरूकता अभियान चलाकर व्यवस्था परिवर्तन करने का कार्य करेगी। ऐसा तो नहीं हुआ, हाँ अन्ना टीम का दौरा जोर-शोर से पूरे प्रदेश में होने लगा। इस दौरे में अन्ना तो स्वास्थ्य के चलते अनुपस्थित ही रहे किन्तु उनके सदस्यों की उपस्थिति भी पूर्णरूप से नहीं रही। इसके बाद भी जिन-जिन सदस्यों ने जनसभाओं में भाग लिया उनके द्वारा किसी प्रत्याशी के समर्थन में अपनी बात नहीं की गई और न ही किसी प्रत्याशी विशेष के विरोध में भाषण दिये गये। इससे लगा कि अन्ना टीम इस बार हिसार की गलती को नहीं दोहराना चाहती है किन्तु इसके बाद भी आम मतदाता को वह इस हेतु कदापि जागरूक नहीं कर पाई कि वो सही प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करे अथवा सभी प्रत्याशियों को नकारने का कार्य करे।
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देखा जाये तो स्वयं अन्ना टीम के दो प्रमुख सदस्यों अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसौदिया ने भी अपने-अपने मत का प्रयोग नहीं करने का विचार बनाया था, यह और बात है कि मीडिया के दबाव में अरविन्द केजरीवाल ने मतदान करने का मन बनाया भी तो उनका नाम ही मतदाता सूची में नहीं निकला। इनका कहना था कि कोई प्रत्याशी इस लायक ही नहीं है कि उसके पक्ष में मतदान किया जाता। ऐसा ही सभी मतदाताओं के साथ भी तो रहा होगा तो फिर क्या सभी को मतदान करने से बचना चाहिए था? खुद अन्ना टीम के द्वारा प्रारम्भ में इस बात का उल्लेख किया जाता रहा था कि प्रत्याशियों को नकारने सम्बन्धी नियम 49-ओ का भी प्रयोग किया जा सकता है किन्तु अन्ना टीम के सदस्य खुद ही इसके प्रयोग के प्रति सकारात्मकता दिखाते नहीं दिखे।
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जहाँ तक उत्तर प्रदेश की राजनीति की बात है तो जबसे क्षेत्रीय दलों का उभार यहाँ देखने में आया है तबसे किसी विशेष मुद्दे पर ही मतदाता ने अपना मन परिवर्तित किया है अन्यथा की स्थिति में वह जातिगत समीकरणों में अधिक विश्वास के साथ मतदान करता दिखा है। वर्तमान चुनावी स्थिति तो यह थी कि प्रदेश की अधिसंख्यक जनता बसपा और कांग्रेस से मुक्ति चाह रही थी। दोनों के साथ-साथ भ्रष्टाचार का साया इन दलों से भी विशाल स्वरूप लेकर चल रहा था। ऐसे में एक बारगी इस बात पर विचार किया जा सकता था कि अन्ना फैक्टर मतदान में दिखाई पड़े। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, अन्ना फैक्टर मंचों से नीचे उतर कर मतदान केन्द्रों तक नहीं पहुँच सका। दलगत, जातिगत, क्षेत्रगत मतदान उसी तरह से हुआ जैसे कि पूर्व में भी होता रहा है, हाँ पहली बार बने युवा मतदाताओं की सक्रियता, उत्साह के चलते मतदान प्रतिशत तो बढ़ा किन्तु इसे अन्ना फैक्टर के रूप में कतई परिभाषित नहीं किया जा सकता है।
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